खेल दिवस पर निबंध मेरे कड़वे पर सच्चे शब्द 100

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इस खेल दिवस के मौके पर मैं आपके सामने अपने विचार रखना चाहूंगा और यह विचार मैंने एक कागज पर पहली बार तब लिखे थे जब मैं गुरुकुल कांगड़ी से खेल के विषय की पढ़ाई कर रहा था और हमें खेल दिवस पर निबंध लिखने को कहा गया था। तब से लेकर अब तक लगभग 9 से 10 वर्ष बीत चुके हैं और हमारी निजी जिंदगियों में बहुत कुछ बदल चुका है। किंतु भारत में खेल के प्रति सिस्टम को देखकर लगता है सब कुछ पहले जैसा ही है बदला कुछ भी नहीं है। 

नेशनल स्पोर्ट्स डे स्पीच

खेल दिवस के उपलक्ष में मैं अपने विचार आपके सामने प्रकट करना चाहूंगा और इसकी शुरुआत मैं अपने राष्ट्रीय खेल हॉकी से करूंगा। यदि हम बात हॉकी की करें तो जाहिर सी बात है हॉकी के जादूगर सम्माननीय मेजर ध्यानचंद का ध्यानचंद का जिक्र अनिवार्य हो जाता है। हॉकी खेल में जबरदस्त पकड़ होने के कारण इन्हें हॉकी का जादूगर भी कहा जाता है। मेजर ध्यानचंद का जन्म प्रयागराज के एक राजपूत परिवार में 29 अगस्त 1905 को हुआ था, बाद में वे इलाहाबाद से झांसी शिफ्ट हो गए।

खेल दिवस ध्यानचंद जी को सम्मानित करने के लिए उनके जन्मदिवस पर ही मनाया जाता है। ध्यानचंद ने हॉकी को नए आयाम दिए और नई ऊंचाइयां प्रदान की तथा हमारे देश को गौरवान्वित किया है। 

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हॉकी खेल के अलावा और भी ऐसे खेल हैं जिनके बल पर खिलाड़ियों ने भारत का नाम रोशन किया है जैसे क्रिकेट में सचिन तेंदुलकर ने, एथलेटिक्स मैं मिल्खा सिंह, पीटी उषा कुश्ती में गामा पहलवान, दारा सिंह लॉन टेनिस में रामनाथन कृष्णन, लिएंडर पेस महेश भूपति सरीखे खिलाड़ी हैं जिन्होंने हमारे देश का नाम रोशन किया है। दोस्तों इनमें से कुछ खिलाड़ी हमारे बीच हैं और कुछ नहीं पर मैं खेल दिवस के इस शुभ अवसर पर सब को नमन करना चाहूंगा उनको भी जिनका नाम मैं नहीं ले सका।

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खेल दिवस पर निबंध मेरे कड़वे पर सच्चे शब्द 100

अब मैं बात करना चाहूंगा एक बड़े सवाल की जो अक्सर ओलंपिक जैसे खेलों से ठीक पहले पूछा जाता है क्या इस बार भारत गोल्ड मेडल जीतेगा क्या इस बार हम एक गोल्ड मेडल लाने में कामयाब हो पाएंगे और यह सवाल और भी शर्मा तब हो जाता है जब कोई यह पूछता है कि 100 करोड़ से भी ज्यादा आबादी वाला देश भारत क्या इस बार एक गोल्ड मेडल लाने में कामयाब हो पाएगा?  वाकई में यह सवाल हर भारतीय को झकझोर कर रख देता है।

ऐसा नहीं है कि भारत में प्रतिभा की कोई कमी है यदि कमी है तो दुख प्रतिमा को ढूंढने वालों की,  उसे निकालने वालों की और कुछ हद तक सिस्टम की। यदि हर व्यक्ति अपना काम करें और वह भी पूरी ईमानदारी से तो नतीजे और भी बेहतर हो सकते हैं। नीचे दिए गए इस उदाहरण से मैं आपको कुछ समझाना चाहता हूं:

मान लीजिए दो व्यक्ति है एक तीरंदाज है और एक कुम्हार है हम इन दोनों व्यक्तियों को 50-50 छात्र ट्रेनिंग हेतु  सौंपते हैं। इन दोनों शिक्षकों को बच्चों को तैयार करने के लिए 3 से 6  महीने का वक्त देते हैं। पर हम दोनों  व्यक्तियों के कार्य आपस में बदल देते हैं, तीरंदाज को बच्चों को घड़े बनाना सिखाना है और कुम्हार को बच्चों को तीरंदाजी सिखानी है। संभव है कि वह कुछ बच्चों को ट्रेन भी कर दे पर 2 से 3 छात्र ही ऐसे होंगे जो अच्छी तीरंदाजी कर सकेंगे तथा एक से दो छात्र ही ऐसे होंगे जो अच्छे खड़े बना सकेंगे।

इसी प्रकार हमें ओलंपिक में भी 2 से 4 सिल्वर मेडल, 3 से 5  ब्रोंज मेडल से ही संतोष करना पड़ता है। यदि तीरंदाज अपना काम करता और कुम्हार अपना काम करता तो नतीजे और बेहतर हो सकते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि स्पोर्ट्स के उच्च अधिकारी खुद स्पोर्ट्स से नहीं जुड़े हैं किंतु खेल को संचालित करने वाली उन ऊंची पोजीशन पर विराजमान है जहां से किसी भी खेल की परिभाषा बदली जा सकती है। या तो वे पॉलीटिशियन है या कुछ और वरना 100 करोड़ से भी अधिक की आबादी होने के बावजूद हमें सिर्फ 1 या 2 गोल्ड मेडल, कुछ सिल्वर और ब्रॉन्ज मेडल से संतोष नहीं करना पड़ता। 

इन्हीं विचारों के साथ में अपने 10 वर्ष पूर्व लिखे गए शब्दों को विराम देना चाहूंगा।

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